समय की स्थिर गति

मदुरै के एक पुराने घर में, जहाँ बगीचे से मोगरे की खुशबू आती थी, अप्पा बड़े प्यार से एक प्राचीन दीवार घड़ी की धूल साफ़ कर रहे थे। लकड़ी का फ्रेम पुराना हो चुका था, लेकिन घड़ी की सुइयाँ अब भी धीरे-धीरे, बिना रुके चल रही थीं।


तभी उनका बेटा बिजू अंदर आया। चेन्नई में एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करने वाला बिजू कुछ दिनों के लिए घर आया था, लेकिन उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं।


“अप्पा, मैं बहुत मेहनत कर रहा हूँ, फिर भी मुझे लगता है कि मैं कहीं नहीं पहुँच रहा हूँ। दूसरे लोग आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन मैं अभी भी वहीं का वहीं हूँ,” उसने निराशा से कहा।

अप्पा मुस्कुराए और घड़ी को साफ़ करते हुए बोले, “इधर आओ, कन्ना।” उन्होंने घड़ी की ओर इशारा किया। “क्या तुम इन सुइयों को देख रहे हो? ये इतनी धीरे चलती हैं कि हमें इनकी गति दिखाई ही नहीं देती। लेकिन अगर ध्यान से देखो, तो समझ में आएगा कि ये कभी नहीं रुकतीं। चाहे कितनी भी धीमी गति से क्यों न चलें, ये अपने गंतव्य तक ज़रूर पहुँचती हैं।”

बिजू ने सेकंड की सुई को धीरे-धीरे आगे बढ़ते देखा। उसने यह घड़ी बचपन से देखी थी, लेकिन इस तरह कभी नहीं सोचा था।

“ज़िंदगी भी ऐसी ही है,” अप्पा बोले। “प्रगति हमेशा तेज़ नहीं होती और न ही हमेशा दिखती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह हो ही नहीं रही। जब तक तुम चलते रहोगे, तुम आगे बढ़ रहे हो।”

बिजू ने गहरी सांस ली। उसे लगा कि उसके कंधों पर से एक बोझ उतर गया है। घड़ी की टिक-टिक, जो अब तक सिर्फ़ एक साधारण आवाज़ थी, अब उसे सुकून देने वाली लगी।

उस शाम, जब सूरज की रोशनी घर की पुरानी दीवारों पर सुनहरी चमक बिखेर रही थी, बिजू मदुरै से एक नई सोच के साथ वापस लौटा—जानते हुए कि चाहे गति धीमी हो, हर कदम मायने रखता है।

और उस घर में, पुरानी घड़ी हमेशा की तरह टिक-टिक करती रही।