स्थिर मन, गतिशील शरीर
चित्तूर, पलक्कड़ में सोहनशिनी नदी के शांत किनारे एक समर्पित गृहिणी लक्ष्मी रहती थी। सुबह से शाम तक, वह खाना बनाती, सफाई करती और अपने घर का प्रबंधन करती। लेकिन दैनिक जीवन की भाग- दौड़ में, उसका मन अशांत रहता।
एक शाम, वह अपने आप आपको बहुत बोझिल महसूस करते हुए, नदी के किनारे टहलने लगी, जहाँ उसने एक महान योग गुरु मणिजी को बरगद के पेड़ के नीचे ध्यान करते हुए देखा।
जिज्ञासु होकर, वह उनके पास गई। "गुरुजी, मैं दिन भर काम करती हूँ। मेरा शरीर हमेशा गति में रहता है, लेकिन मेरा मन बेचैन रहता है। मैं अपने बाह्य कर्म और आंतरिक मन में संतुलन कैसे पाऊँ?"
गुरु मणिजी मुस्कुराए और लक्ष्मी को एक मिट्टी का बर्तन दिया और कहा ‘ जाओ, इसे नदी से भरकर आश्रम तक एक बूंद भी गिराए बिना लाओ।”
लक्ष्मी बड़ी सावधानी से आगे बढ़ी, उसकी आँखें बर्तन पर टिकी थीं। हर कदम के साथ, उसने सरसराहट करते पेड़ों, चहचहाते पक्षियों और बहती नदी को अनदेखा किया—उसका ध्यान केवल बर्तन के पानी केंद्रित
था।
जब वह आश्रम पहुँची, तो गुरु मणिजी ने पूछा, "लक्ष्मी, रास्ते में क्या देखा?"
वह बोली "कुछ नहीं, गुरुजी। मेरा ध्यान तो केवल पानी पर केंद्रित था।"
गुरु ने सिर हिलाया। "यही कुंजी है। आपका शरीर गति में हो सकता है, लेकिन आपका मन शांत, एकाग्र और संतुलित और स्थिर रहना चाहिए।"
उस दिन, लक्ष्मी ने कर्म करने के सत्य को सीखा—