वक़्त की रेत

ग़ज़्ज़ा के साहिल पर, जहाँ लहरें रेत को चूमकर ऐसे लौट जाती थीं जैसे अनकहे वादे, लैला बैठी समंदर देख रही थी। एक वक़्त था, जब वो बेफिक्र जवान लड़की थी, शायरी और संगीत के ख़्वाब देखती थी। अब, जंग और गुमशुदगी की गूँजों ने उसे ऐसे साँचे में ढाल दिया था जिसे वो खुद भी मुश्किल से पहचान पाती थी।



उस
के पास बैठा था उसका बचपन का दोस्त, यूसुफ़, जो बरसों पढ़ाई करने बाहर रहने के बाद लौटा था। उसने लैला का चेहरा देखा, जो कभी हँसी से भरा होता था, अब खामोश ताक़त की परछाइयों से ढका था। "तुम बदल गई हो, लैला," वो धीरे से बोला। "तुम वो नहीं हो जिसे मैं छोड़ गया था।"

लैला हल्की सी मुस्कुराई, उसकी नज़रें क्षितिज पर टिकी थीं। "और तुम, यूसुफ़? क्या तुम वही हो?"

यूसुफ़ थोड़ा रुका, फिर सर हिला दिया। "नहीं। मैंने सोचा था मैं उन्हीं लोगों के पास, उन्हीं गलियों में वापस आऊंगा, लेकिन सब कुछ अलग लग रहा है। यहाँ तक कि तुम भी..."

लैला ने मुट्ठी भर रेत उठाई और उसे अपनी उंगलियों से फिसलने दिया। "तुम किसी भी इंसान को दो बार एक जैसा नहीं पाओगे, यूसुफ़। यहाँ तक कि एक ही इंसान में भी नहीं। जंग, प्यार, वक़्त – हर चीज़ हमें बदल देती है। वो लैला जिसे तुम याद करते हो, चली गई। और कल, मैं वो लैला भी नहीं रहूंगी जो आज हूँ।"

यूसुफ़ ने उसकी नज़रें डूबते सूरज की तरफ मोड़ीं, जिसकी आग जैसी चमक बेचैन लहरों में झलक रही थी। उसे आखिरकार समझ आ गया। ग़ज़्ज़ा में, जैसे ज़िंदगी में, कुछ भी नहीं बदलता – न ज़मीन, न लोग, और न ही खुद इंसान।