अमल की किताब
कोलकाता की सुबह थी। हल्की-सी धुंध, सड़क किनारे चाय के कुल्हड़, और कॉलेज की ओर बढ़ता नरेंद्र-कंधे पर किताबों का बोझ, आँखों में उम्मीद की चमक।क्लासरूम में वह सबसे आगे बैठता, प्रोफेसर की हर बात को जैसे मन के किसी कोने में सहेज लेता। किताबों के पन्नों में उसे लगता था, शायद यही असली दुनिया है।
एक दिन उसकी दोस्त कल्पना ने मुस्कुराते हुए कहा,"हैकाथॉन में चलोगे नरेंद्र? किताबों से बाहर भी एक दुनिया है।"नरेंद्र थोड़ा सकुचाया, "थ्योरी तो आती है, पर प्रैक्टिकल में डर लगता है।" कल्पना की मुस्कान में भरोसा था, "कोशिश करोगे तो ही जान पाओगे।"
रात भर की मेहनत, चाय की प्यालियाँ, और कंप्यूटर स्क्रीन पर झपकती हुई उम्मीदें। नरेंद्र के कोड में बार-बार गलतियाँ आतीं, लेकिन हर कोशिश के साथ कुछ नया सीखता गया-गलतियाँ सुधारना, टीम के साथ बहस करना, और हार के बाद फिर से कोशिश करना।
दुर्गा पूजा के मौसम में जब शहर रंगों से भर गया, नरेंद्र और उसके दोस्तों ने एक छोटी-सी ऐप बनाई-पंडाल घूमने वालों के लिए। अब किताबें नहीं, गलियों की आवाज़ें, दुकानदारों की मुस्कानें, और त्योहार की रौनक थी। नरेंद्र ने जाना, असली ज्ञान तो इन गलियों में, लोगों की बातों में, और ज़िंदगी के तजुर्बे में छुपा है।
सेमेस्टर के आखिर में, नरेंद्र ने कॉलेज के फेस्ट में अपनी कहानी सुनाई। उसकी आँखों में आत्मविश्वास था और शब्दों में सच्चाई-
"ज्ञान का लाभ तभी मिलता है जब उसे अमल में लाया जाए।"